सलातुस्साबीह (नमाज़) के बारे में हदीसों का तहक़ीक़ी जायज़ा

सलातुस्साबीह (नमाज़) के बारे में हदीसों का तहक़ीक़ी जायज़ा
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अबू दाऊद ने अपनी (हदीस #1297)

 इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब से कहा : ऐ अब्बास ऐ मेरे चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ? यह दस चीज़ें हैं, अगर आप इन्हें कर लें तो अल्लाह तआला आपके अगले और पिछले, नये और पुराने, गलती से किए गए और जान बूझकर किए गए, छोटे और बड़े, तथा गुप्त और प्रत्यक्ष सभी गुनाहों को माफ कर देगा, वे दस चीज़ें यह है कि आप
चार रकअत नमाज़ पढ़ें,
हर रकअत में सूरतुल फातिहा और कोई एक सूरत पढ़ें,
पहली रकअत में क़ुरआन पढ़ने से फारिग होने के बाद खड़े होने की हालत में पंद्रह बार ''सुब्हानल्लाह, वल-हम्दुलिल्लाह, व ला इलाहा इल्लल्लाह, वल्लाहु अक्बर'' पढ़ें।
 फिर रुकूअ करें और रुकूअ की हालत में यह दुआ दस बार पढ़ें,
फिर रुकूअ से अपना सिर उठाएं और यही दुआ दस बार पढ़ें।
 फिर सज्दे में जाएं और सज्दे की हालत में दस बार यही दुआ पढ़ें।
फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार यही दुआ पढ़ें।
 फिर आप सज्दा करें और दस बार यही दुआ पढ़ें।
फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार यही दुआ पढ़ें।

👆तो यह हर रकअत में पचहत्तर बार होगए। इसी तरह आप चारों रकअतों में करें। यदि आप हर दिन एक बार यह नमाज़ पढ़ सकते हैं तो पढ़ें, यदि ऐसा नहीं कर सकते तो हर जुमा को एक बार, यदि यह भी न कर सकें तो हर महीने में एक बार, अगर यह भी न हो सके तो हर साल एक बार और यदि यह भी नहीं कर सकें तो अपने जीवन में एक बार पढ़ें।''
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तिर्मिज़ी ने इसी हदीस के ही जैसा अबू राफे की रिवायत से बताया गया है।
(किताब: अस्सलात, बाब: मा जाआ फी सलातित्-तस्बीह, हदीस संख्या : 482).

👆तो इस हदीस में सलातुत्-तसाबीह का तरीक़ा बताया गया है।

इसकी तहक़ीक़:- 👇👇👇

उलमाए कराम ने सलातुत-तसाबीह की सही हदीस  के बारे में एखतलाफ़ किया है, कुछ ने हसन और कुछ ने ज़ईफ़ कहा है।


1) .इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ''अल-मुग़नी'' (1/438) में कहते हैं:

''जहाँ तक सलातुत-तस्बीह की बात  है, तो इमाम अहमद का कहना है: यह मुझे पसंद नहीं है। उनसे से पूछा गया कि : क्यों? तो फरमाया : उसके बारे में कोई सही सुबूत नहीं मिलता है।
और नकारने वाले की तरह उससे अपना हाथ झाड़ लिया।''
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2.) नववी रहिमहुल्लाह ने ''अल-मजमूअ शरहुल मुहज़्ज़ब'' (3/547-548) में फरमाया : ''क़ाज़ी हुसैन, तथा 'अत-तहज़ीब' और 'अत-ततिम्मा' के लेखकों का कहना है: सलातुत-तस्बीह, उसकी बाबत वर्णित हदीस की वजह से, मुसतहब है। हालांकि इसके मुसतहब होने का मामला सोचने लायक है। 
क्योंकि उसकी हदीस ज़ईफ़ (कमज़ोर) है,
 और उसमें जो तरीक़ा बताया गया है वो आम नमाज़ से अलग है। है। इसी लिए बेहतर  यह है कि किसी हदीस के आधार के बिना उसे न किया जाए, और उसकी हदीस का पुख्ता सबूत नही है। और वह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है कि उन्हों ने कहा : (अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से कहा: ऐ अब्बास ऐ मेरे चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ?यह दस चीज़ें . . . हदीस के अंत तक) इसे अबू दाऊद और इब्ने माजा ने रिवायत किया है, तथा तिर्मिज़ी ने इसे अबू राफे की रिवायत से इसी के अर्थ में रिवायत किया है। तिर्मिज़ी ने फरमाया : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सलातुत तस्बीह के बारे में कई हदीसें मिलती हैं, और उसमें से कोई बड़ी चीज़ सही नहीं है।
उक़ैली ने कहा है: सलातुत तस्बीह के बारे में कोई हदीस साबित नहीं है।''
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3).शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह ''मजमूओ फ़तावा'' (11/579) में फरमाते हैं : ''इन नमाज़ों से मुताल्लिक़  हदीसों में सबसे अच्छी सलातुत तस्बीह की हदीस है। इस हदीस को अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है। इसके बावजूद, चारों इमामों में से कोई एक भी इसका क़ायल नहीं है, बल्कि इमाम अहमद ने इसकी हदीस को ज़ईफ ठहराया है और इन नमाज़ों को मुसतहब नहीं समझा है। जहाँ तक इब्नुल मुबारक का मानना है, तो उनसे यह बात मिलती है कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मरफूअन साबित नमाज़ की तरह नहीं है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मरफूअन हदीस में दूसरे सज्दा के बाद लंबा क़ादा (बैठक) नहीं है, यह नमाज़ के तरीक़ो खेलाफ है, इसलिए इस तरह की हदीस के द्वारा उसे साबित करना जायज़ नहीं है।
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4.) शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने ''मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन'' (14/327) में फरमाया : ‘‘ मेरे नज़दीक  राजेह बात यह है कि सलातुत तस्बीह सुन्नत नहीं है, और उसकी हदीस ज़ईफ़ है, और इसके कुछ कारण हैं :

पहला कारण : उसकी हदीस मुज़तरिब है, उसके अंदर कई रूपों से एखतलाफ़ पाया जाता है।

दूसरा  : इसे इमामों में से किसी एक ने भी मुसतहब नहीं समझा है। शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहिमहुल्लाह ने फरमाया : '' किसी इमाम ने उसे मुसतहब नहीं समझा है।'' तथा वह कहते हैं : ''रही बात अबू हनीफा, मालिक और शाफेइ की, तो इन्हों ने सिरे से इसे सुना ही नहीं है।''

चौथा : अगर  यह नमाज़ इस्लाम का हिस्सा  होती तो इसे उम्मत के लिए इस तरह उल्लेख किया जाता कि उसमें कोई संदेह नहीं रह जाता, तथा वह उनके बीच कोई शक न  होती क्योंकि उसका सवाब बहुत है।
हम कोई ऐसी इबादत नहीं जानते जिसमें इस तरह चुनाव का विकल्प दिया जाता है कि उसे प्रति दिन, या सप्ताह में एक बार, या महीने में एक बार, या साल में एक बार, या जीवन में एक बार किया जाए। जब उसका लाभ महान है, वह नमाज़ों के वर्ग से अलग-थलग है, फिर भी वह सही से नही है। और उसकी तफसील  नहीं की गयी है।
तो इससे पता चला कि : उसका कोई आधार नहीं है। यह इसलिए कि जो चीज़ अपने समान चीज़ों से अलग होती है और उसका सवाब  ज़्यादा होता है, तो लोग उस पर ध्यान देते हैं।
 इसी लिए जब यह चीज़ इस नमाज़ के अंदर नहीं पाई गई, तो पता चला कि यह सही नहीं है। इसीलिए किसी इमाम ने इसे मुसतहब नहीं समझा है।

जैसा के हम ने देखा कि उलमाए कराम की अलग अलग राय है ज़्यादा तर ने इसको तरजीह नहीं दी है और एखतलाफ़ किया है इस हदीस के सही होने पे। इसी लिए हमे चाहिए कि और जो नाफिलि इबादात हैं उसको करे और ज़्यादा से ज़्यादा सवाब हासिल करें।

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