तकलीद और तहकीक में फर्क*

*तकलीद और तहकीक में फर्क*

आजकल ये मसला ज़ोरो-शोर से चल रहा है कि तक़लीद (यानी दीन में किसी एक शख्स की बात पर  बिना दलील के अमल करना) जायज़ है ? वाजिब है ? या हराम है ?
इन सब मसलों को हटा कर अगर हम रोज़ाना की ज़िन्दगी के मसाइल को देखें तो पता चलेगा कि क्या हम लोग तक़लीद सिर्फ दीन में ही करते है या फिर अपने दुन्यावी कामों में भी।

यहाँ पर कुछ मिसाले दे रहा हूँ तकलीद की और तहकीक की👇

1- अगर हमें घर की तामीर करवाना हो तो हम किसी एक अच्छे इंजीनियर को पकड़ते है। जैसा वो कहता है,हम उसी के मुताबिक़ घर बनवाते हैं,चाहे वो टेढा मेंढा बनवाये या कमजोर हमें कोई मतलब नहीं हम तो बस आँख बंद करके जैसा इंजीनियर कहेगा वैसे ही करते जायेगें
*☝इसको कहते है तकलीद*

अगर हमें घर की तामीर करवाना हो तो हम किसी एक अच्छे इंजीनियर को पकड़ते है। जैसा वो कहता है,हम उसी के मुताबिक़ घर बनवाते हैं,लेकिन जब हमें देखते है कि घर टेढा मेंढा बन रहा है और इंजीनियर में कुछ कमियां हैं तो फिर हम उससे बड़े किसी दूसरे इंजीनियर को तलाश करते है।जरूरत पड़ने पर दस-बीस समझदार लोगों से पुछताछ करते है। अगर दूसरा भी सही नहीं हो तो तीसरे के पास जाते हैं इसी तरह जब तक सही इंजीनियर नहीं मिलता हम अपना घर नहीं बनवाते।
*☝इसको कहते हैं तहकीक*

2- कोई बीमार पड़ जाता है तो वो  किसी एक अच्छे डॉक्टर को पकड़ता है,जो डॉक्टर कहता है वो सब करना पड़ता है।अगर कुछ दिनों बाद भी हमारी तबीयत में सुधार न हुआ तब भी हम किसी दूसरे डाॅक्टर से राब्ता नहीं करगें सिर्फ पहले वाले डाॅक्टर पर ही आँख बंद करके भरोसा करते रहेगें चाहे हमारी तबीयत दिन प दिन बिगड़ती ही क्यों न चली जायें।
*☝इसको कहते हैं तकलीद*

-कोई बीमार पड़ जाता है तो वो  किसी एक अच्छे डॉक्टर को पकड़ता है,जो डॉक्टर कहता है वो सब करना पड़ता है।लेकिन अगर कुछ दिनों बाद भी हमारी तबीयत में सुधार न होता है  तब हम किसी दूसरे डाॅक्टर से राब्ता करते है।जरूरत पड़ने पर दस बीस समझदार लोगों से पुछताछ भी करते।अगर दूसरे ड़ाॅक्टर से बीमारी ठीक नहीं हुई तो तीसरे ड़ाॅक्टर के पास जाते है।इसी तरह जब तक सही डाॅक्टर नहीं मिलता तब तक हम तहकीक करते रहते हैं।
*☝इसको कहते हैं तहकीक*

अब दीन में तकलीद करने वालों से मेरा सवाल हैं कि फना होने वाले दुन्यावी घर को बनाने के लिए आप इतनी तहकीक और एहतियात बरतते हो जबकि  कभी न मिटने वाला आखरी घर को बनाने के लिए दीन में तहकीक नहीं करते।
इसी तरह इस मिटने वाले जिस्म को ठीक करने के लिए कई सारे डाॅक्टर बदलते हो जबकि कभी न मिटने वाली आखिरत को ठीक करने के लिए तहकीक नहीं करते
ये नाइंसाफी क्यों। क्यों सिर्फ एक इमाम की तकलीद का पट्टा पहन लिया।
क्यों जिस तरीके पर बाप दादा को पाया उस पर एतमाद कर लिया। और जो तहकीक करना भी चाहे उसको तकलीद को छोड़ने पर गुमराह होने का डर क्यों दिखाया जाता।

सोचने वाली बात है कि आपको दुन्यावी कामों में तकलीद करने से नुकसान का डर हैं लेकिन दीन में तकलीद करने से नुकसान का कोई ख्याल नहीं

अफसोस!!!

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